*मिर्जा और साहिबा की प्रेम कहानी*
कहते हैं कि इश्क खुदा है, इश्क जन्नत है, इश्क जमाने की सबसे बड़ी नेमत है। शायद यही सोचकर उन दोनों ने मुहब्बत की थी।लेकिन इस मुहब्बत को अंजाम नसीब नहीं था और फिर वो हुआ जो सदियों से आशिकों के साथ होता आया है।
कहते है कि उन्हें मौत नसीब हुई लेकिन मौत से पहले एक दूसरे की आखों में उन्होंने जो देखा उसी को असली सुकून कहते हैं।आज सिनेमाई पर्दे पर ‘मिर्जा-साहिबा’ की कहानी उतरी है- मिर्ज्या। रुपहले पर्दे पर हर्षवर्धन कपूर और सैयामी खेर ने
मिर्जा और साहिबा की भूमिका निभाई है। फिल्म में कहानी वर्तमान वक्त के हिसाब से कही गई है लेकिन असली कहानी किसी स्याही से लिखी नहीं जा सकती।इस कहानी को लिखने के लिए तो दिल में दर्द और आखों में आंसू चाहिएं। चलिए कोशिश करते हैं
मिर्जा और साहिबा की कहानी सुनाने की, उस दौर, उस मंजर और उस दर्द का बयां करने की जो
मिर्जा और साहिबा की रगों में इश्क बनकर दौड़ता था।बचपन का प्यार बात उन दिनों से भी बहुत पहले की है जब पंजाब दो टुकड़ों में बंटा नहीं था। पंजाब की उपजाऊ जमीन पर ही उपजी थी इश्क की ये दास्तान।
मिर्जा और साहिबा को पढ़ते वक्त ही प्यार हो गया था। दोनों को एक मौलवी साहब पढ़ाते थे। जब तक मौलवी साहब उनकी आखों को पढ़ पाते, देर हो चुकी थी।दोनों एक-दूसरे की मुहब्बत में इस कदर गिरफ्तार थे कि ना दिन का होश था और ना रात का। सोते-जागते, इबादत करते सिर्फ एक-दूसरे का ही ख्याल उनके ज़ेहन में रहता था।
कहते हैं कि इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपते। मौलवी को उनकी ये नजदीकियां रास नहीं आईं। और फिर खबर जमाने को भी होने लगी।
साहिबा की बदनामी ना हो इस डर से मिर्जा ने गांव छोड़ दिया और अपने गांव चला गया। साहिबा जैसे-तैसे मिर्जा की याद में वक्त गुजार रही थी। इसी बीच उसके माता पिता ने उसकी शादी तय कर दी। साहिबा ने मिर्जा को संदेश भेजा कि वो उसे ले जाए।साहिबा का डरमिर्जा, साहिबा को लेने पहुंचा और घोड़े पर उसे ले भागा।
कहते हैं कि मिर्जा जितना बढ़िया घुड़सवार था उससे ज्यादा बढ़िया तीरंदाज था। मिर्जा जब साहिबा को लेकर निकला तो बारात और साहिबा के घरवाले उसे देखते रह गए। कोई उसे ना तो रोक पाया और ना ही पकड़ पाया।रास्ते में मिर्जा की मुठभेड़ एक पुराने दुश्मन से हुई- फिरोज।
कहते हैं कि उसने फिरोज को मार दिया और इस खून खराबे को देख कर साहिबा डर गई। वो जानती थी उसके परिवार के लोग और उसके भाई उसे तलाश कर रहे होंगे। वो नहीं चाहती थी कि खूनखराबा हो। वो नहीं चाहती थी कि मिर्जा के हाथ उसके परिवार के खून से रंगे जाएं।
उसने मिर्जा से निकल चलने को कहा लेकिन मिर्जा को अपने तीर-कमान पर अभिमान था। उसने भागने से इंकार कर दिया और एक पहाड़ी पर चढ़ साहिबा के भाइयों का इंतजार करने लगा। रात होने लगी तो मिर्जा की आंख लग गई।साहिबा के कारण मारा गया
मिर्जा साहिबा मिर्जा से अनुनय-विनय करती रही, चलने को कहती रही लेकिन वो नहीं माना। उसके पास 300 तीर थे और उसका निशाना अचूक था। उसे भरोसा था कि कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता लेकिन होनी को तो कुछ और ही मंजूर था।
साहिबा उसने परिवार को भी मरता नहीं देख सकती थी और अपने मिर्जा को भी। मिर्जा की आंख लगने के बाद उसने 300 तीरों को तोड़ कर फेंक दिया और कमान को पेड़ की ऊंचाई पर टांग दियाथोड़ी ही देर में उसके भाई उस मैदान में पहुंच गए।
मिर्जा उठा तो उसने अपने हथियार नादारद पाए। लेकिन उसे साहिबा पर गुस्सा नहीं आया। वह उसकी आखों से दिल की बात समझ गया। साहिबा के भाइयों ने मिर्जा को मौत के घाट उतार दिया।
एक कहानी में साहिबा मर जाती है। वह अपने भाईयों को रोकने के लिए मिर्जा के सामने खड़ी हो जाती है लेकिन उनके तीर दोनों को चीर देते हैं और दोनों शरशय्या पर हमेशा के लिए सो जाते हैं।एक दूसरी कहानी भी है जिसमें
मिर्जा साहिबा को जिंदा रहने के लिए कहता है और फिर साहिबा जिंदा रहती है। लेकिन ऐसे जैसे मन मिर्जा तन साहिबा। यानि साहिबा के शरीर में मिर्जा का दिल।कौन सा अंत सच है? नहीं पता लेकिन ये कहानी जितनी पुरानी है उतनी है दर्द से भरी भी है।
मिर्जा और साहिबा की ये अमर प्रेम कहानी पंजाब के लोकगीतों में अक्सर सुनने को मिल जाती है
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